कुछ ऐसी पिला दे मुझे ऐ पीर-ए-मुग़ाँ आज
क़ैंची की तरह चलने लगी मेरी ज़बाँ आज
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निगाहों में इक़रार सारे हुए हैं
हमें तो उन की मोहब्बत है कोई कुछ समझे
मय-कशो देर है क्या दौर चले बिस्मिल्लाह
हज़ार जान से साहब निसार हम भी हैं
सर्व-क़द लाला-रुख़ ओ ग़ुंचा-दहन याद आया
जी चाहता है उस बुत-ए-काफ़िर के इश्क़ में
ता-मर्ग मुझ से तर्क न होगी कभी नमाज़
दिल में तिरे ऐ निगार क्या है
जा लड़ी यार से हमारी आँख
हाथ दोनों मिरी गर्दन में हमाइल कीजे
वो कहते हैं उट्ठो सहर हो गई