मय-कशो देर है क्या दौर चले बिस्मिल्लाह
आई है शीशा-ओ-साग़र की तलबगार घटा
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वो कहते हैं उट्ठो सहर हो गई
देखिए पार हो किस तरह से बेड़ा अपना
बुत-ए-ग़ुंचा-दहन पे निसार हूँ मैं नहीं झूट कुछ इस में ख़ुदा की क़सम
शिकायत मुझ को दोनों से है नासेह हो कि वाइज़ हो
रक़ीब क़त्ल हुआ उस की तेग़-ए-अबरू से
तिरे जलाल से ख़ुर्शीद को ज़वाल हुआ
ज़ाहिदो कअ'बे की जानिब खींचते हो क्यूँ मुझे
सिक्का-ए-दाग़-ए-जुनूँ मिलते जो दौलत माँगता
नुमूद-ए-क़ुदरत-ए-पर्वरदिगार हम भी हैं
जीते-जी के आश्ना हैं फिर किसी का कौन है
किसी को कोसते क्यूँ हो दुआ अपने लिए माँगो
नमाज़ कैसी कहाँ का रोज़ा अभी मैं शग़्ल-ए-शराब में हूँ