बस्तियाँ कुछ हुईं वीरान तो मातम कैसा
कुछ ख़राबे भी तो आबाद हुआ करते हैं
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कुछ लोग तग़य्युर से अभी काँप रहे हैं
तुम्हारी मस्लहत अच्छी कि अपना ये जुनूँ बेहतर
हुस्न काफ़िर था अदा क़ातिल थी बातें सेहर थीं
हम जिस के हो गए वो हमारा न हो सका
ख़याल जिन का हमें रोज़-ओ-शब सताता है
जो तिरे दर से उठा फिर वो कहीं का न रहा
जब्र-ए-हालात का तो नाम लिया है तुम ने
वो तबस्सुम है कि 'ग़ालिब' की तरह-दार ग़ज़ल
तू पयम्बर सही ये मो'जिज़ा काफ़ी तो नहीं
यूँ जो उफ़्ताद पड़े हम पे वो सह जाते हैं
ज़ंजीर से जुनूँ की ख़लिश कम न हो सकी
एक दीवाने को इतना ही शरफ़ क्या कम है