हम जिस के हो गए वो हमारा न हो सका
यूँ भी हुआ हिसाब बराबर कभी कभी
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अब धनक के रंग भी उन को भले लगते नहीं
आती है धार उन के करम से शुऊर में
बस्तियाँ कुछ हुईं वीरान तो मातम कैसा
तू पयम्बर सही ये मो'जिज़ा काफ़ी तो नहीं
ज़ंजीर से जुनूँ की ख़लिश कम न हो सकी
ग़ैरत-ए-इश्क़ का ये एक सहारा न गया
जिस ने किए हैं फूल निछावर कभी कभी
लोग तन्हाई का किस दर्जा गिला करते हैं
यूँ जो उफ़्ताद पड़े हम पे वो सह जाते हैं
हमें तो मय-कदे का ये निज़ाम अच्छा नहीं लगता
शगुफ़्तगी-ए-दिल-ए-वीराँ में आज आ ही गई
जहाँ में हो गई ना-हक़ तिरी जफ़ा बदनाम