लोग माँगे के उजाले से हैं ऐसे मरऊब
रौशनी अपने चराग़ों की बुरी लगती है
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टीपू की आवाज़
हमारे हाथ में जब कोई जाम आया है
सफ़र तवील सही हासिल-ए-सफ़र क्या था
वो तबस्सुम है कि 'ग़ालिब' की तरह-दार ग़ज़ल
तू पयम्बर सही ये मो'जिज़ा काफ़ी तो नहीं
हम तो कहते थे ज़माना ही नहीं जौहर-शनास
जब्र-ए-हालात का तो नाम लिया है तुम ने
हम जिस के हो गए वो हमारा न हो सका
ख़याल जिन का हमें रोज़-ओ-शब सताता है
साहिल के सुकूँ से किसे इंकार है लेकिन
अभी आते नहीं उस रिंद को आदाब-ए-मय-ख़ाना
ज़ंजीर से जुनूँ की ख़लिश कम न हो सकी