मैं बढ़ते बढ़ते किसी रोज़ तुझ को छू लेता
कि गिन के रख दिए तू ने मिरी मजाल के दिन
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नानी-अमाँ की वफ़ात पर एक नज़्म
नींद मिट्टी की महक सब्ज़े की ठंडक
इक ईमा इक इशारा मर रहा है
नज़र आसूदा-काम-ए-रौशनी है
मिरी रफ़ीक़-ए-नफ़्स मौत तेरी उम्र दराज़
बे-मसरफ़ बे-हासिल दुख
जाने क़लम की आँख में किस का ज़ुहूर था
मुतज़ाद ज़ाविए
शोलों से बे-कार डराते हो हम को
बुझ गई आग तो कमरे में धुआँ ही रखना
ज़िक्र हम से बे-तलब का क्या तलबगारी के दिन
दम-ए-वापसीं