मुफ़्लिसी भूक को शहवत से मिला देती है
गंदुमी लम्स में है ज़ाइक़ा-ए-नान-ए-जवीं
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बातिन से सदफ़ के दुर-ए-नायाब खुलेंगे
औज-बिन-उनुक़
मैं ने अपनी रूह को अपने तन से अलग कर रक्खा है
हर इक लम्हे की रग में दर्द का रिश्ता धड़कता है
ईद उस परी-वश की
मैं एक साअत-ए-बे-ख़ुद में छू गया था जिसे
मुतज़ाद ज़ाविए
आरज़ू
रात है लोग घर में बैठे हैं
मैं बढ़ते बढ़ते किसी रोज़ तुझ को छू लेता
बजा कि लुत्फ़ है दुनिया में शोर करने का
नज़र आसूदा-काम-ए-रौशनी है