नज़र की मौत इक ताज़ा अलमिया
और इतने में नज़ारा मर रहा है
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औज-बिन-उनुक़
मिरी निगाहों पे जिस ने शाम ओ सहर की रानाइयाँ लिखी हैं
अब आ के क़लम के पहलू में सो जाती हैं बे-कैफ़ी से
सोच कर भी क्या जाना जान कर भी क्या पाया
अलविदा
अबस है राज़ को पाने की जुस्तुजू क्या है
नींद मिट्टी की महक सब्ज़े की ठंडक
मंज़र शमशान हो गया है
खिले हैं फूल की सूरत तिरे विसाल के दिन
लम्हा-ए-तख़्लीक़ बख़्शा उस ने मुझ को भीक में
मैं ने अपनी रूह को अपने तन से अलग कर रक्खा है
ईद उस परी-वश की