खड़ा हुआ हूँ सर-ए-राह मुंतज़िर कब से
कि कोई गुज़रे तो ग़म का ये बोझ उठवा दे
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ये हाथ राख में ख़्वाबों की डालते तो हो
हर इंसाँ अपने होने की सज़ा है
हुस्न इक दरिया है सहरा भी हैं उस की राह में
माज़ी के रेग-ज़ार पे रखना सँभल के पाँव
सदा किसे दें 'नईमी' किसे दिखाएँ ज़ख़्म
मिरे ख़्वाबों की चिकनी सीढ़ियों पर
होंकते दश्त में इक ग़म का समुंदर देखो
बहार बन के ख़िज़ाँ को न यूँ दिलासा दे
तुम्हारे संग-ए-तग़ाफ़ुल का क्यूँ करें शिकवा
गर्द-ए-फ़िराक़ ग़ाज़ा कश-ए-आइना न हो
दुआ को हाथ मिरा जब कभी उठा होगा
मैं भी इस सफ़्हा-ए-हस्ती पे उभर सकता हूँ