सिर्फ़ इक क़दम उठा था ग़लत राह-ए-शौक़ में
मंज़िल तमाम उम्र मुझे ढूँढती रही
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चलते चलते तमाम रस्तों से
ख़ैरात सिर्फ़ इतनी मिली है हयात से
दरोग़ के इम्तिहाँ-कदे में सदा यही कारोबार होगा
देखा है किस निगाह से तू ने सितम-ज़रीफ़
ज़िंदगी ज़ोर है रवानी का
काफ़ी वसीअ सिलसिला-ए-इख़्तियार है
कितनी सदियों से अज़्मत-ए-आदम
दिल है बड़ी ख़ुशी से इसे पाएमाल कर
वो सूरज इतना नज़दीक आ रहा है
आप इक ज़हमत-ए-नज़र तो करें
ख़ुदा ने गढ़ तो दिया आलम-ए-वजूद मगर