ये जहान-ए-आब-ओ-गिल लगता है इक माया मुझे

ये जहान-ए-आब-ओ-गिल लगता है इक माया मुझे

हर-क़दम पर जुस्तुजू ने जिस की बहकाया मुझे

ज़िंदगी-भर मेरे अपनों ने दिया मुझ को फ़रेब

थे जो बेगाने उन्हों ने आ के अपनाया मुझे

वादा-ए-इमरोज़-ओ-फ़र्दा में उलझ कर रह गया

ज़िंदगी-भर सब्ज़-बाग़ इक ऐसा दिखलाया मुझे

इक मुअम्मा जैसे हो सब के लिए मेरा वजूद

हर किसी ने अपने अपने ज़र्फ़ तक पाया मुझे

जिस को देखो गर्दिश-ए-हालात का है वो शिकार

हर कोई जैसे नज़र आता हो घबराया मुझे

अहल-ए-दुनिया ने दिए हैं इस क़दर मुझ को फ़रेब

करता है वहशत-ज़दा अब अपना ही साया मुझे

उस की ज़ुल्फ़-ए-ख़म-ब-ख़म से अब निकलना है मुहाल

ग़म्ज़ा-ओ-नाज़-ओ-अदा से ऐसा उलझाया मुझे

अब जहाँ कोई नहीं मेरे लिए राह-ए-फ़रार

मेरा जज़्ब-ए-शौक़ आख़िर किस जगह लाया मुझे

जाऊँ तो जाऊँ कहाँ कोई नहीं है ख़िज़्र-ए-राह

उम्र-भर जोश-ए-जुनूँ ने मेरे तड़पाया मुझे

अब उड़ाता है मिरी सहरा-नवर्दी का मज़ाक़

इश्क़ करने के लिए था जिस ने उकसाया मुझे

कर दी सब अपनी मता-ए-ज़िंदगी जिस पर निसार

ये जहान-ए-रंग-ओ-बू हरगिज़ न रास आया मुझे

मैं समझता था जिसे अपना रफ़ीक़-ए-ज़िंदगी

तख़्ता-ए-मश्क़-ए-सितम उस ने ही बनवाया मुझे

था मिरा जो हाशिया-बरदार 'बर्क़ी'-आज़मी

उस ने ही तौक़-ए-ग़ुलामी आ के पहनाया मुझे

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