देखा मुझे तो तर्क-ए-तअल्लुक़ के बावजूद
वो मुस्कुरा दिया ये हुनर भी उसी का था
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हम तिरे शौक़ में यूँ ख़ुद को गँवा बैठे हैं
ऐसा है कि सब ख़्वाब मुसलसल नहीं होते
अगर तुम्हारी अना ही का है सवाल तो फिर
ज़ेर-ए-लब
सरहदें
दुख फ़साना नहीं कि तुझ से कहें
आशिक़ी में 'मीर' जैसे ख़्वाब मत देखा करो
क़ुर्बतें लाख ख़ूब-सूरत हों
मैं तो मक़्तल में भी क़िस्मत का सिकंदर निकला
उस का अपना ही करिश्मा है फ़ुसूँ है यूँ है
कल हम ने बज़्म-ए-यार में क्या क्या शराब पी
हो दूर इस तरह कि तिरा ग़म जुदा न हो