न शब ओ रोज़ ही बदले हैं न हाल अच्छा है
किस बरहमन ने कहा था कि ये साल अच्छा है
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ग़ैरत-ए-इश्क़ सलामत थी अना ज़िंदा थी
नौहागरों में दीदा-ए-तर भी उसी का था
जब हर इक शहर बलाओं का ठिकाना बन जाए
ऐ मेरे वतन के ख़ुश-नवाओ
किसी को घर से निकलते ही मिल गई मंज़िल
ये किन नज़रों से तू ने आज देखा
कर गए कूच कहाँ
तसलसुल
तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है
ग़नीम से भी अदावत में हद नहीं माँगी
हम तिरे शौक़ में यूँ ख़ुद को गँवा बैठे हैं