पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्म-ओ-रह-ए-दुनिया ही निभाने के लिए आ
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जिस सम्त भी देखूँ नज़र आता है कि तुम हो
सू-ए-फ़लक न जानिब-ए-महताब देखना
कुछ इस तरह से गुज़ारी है ज़िंदगी जैसे
ये कौन फिर से उन्हीं रास्तों में छोड़ गया
वफ़ा के बाब में इल्ज़ाम-ए-आशिक़ी न लिया
उस का अपना ही करिश्मा है फ़ुसूँ है यूँ है
साए हैं अगर हम तो हो क्यूँ हम से गुरेज़ाँ
मैं रात टूट के रोया तो चैन से सोया
चुप-चाप अपनी आग में जलते रहो 'फ़राज़'
कितना आसाँ था तिरे हिज्र में मरना जानाँ
वो वक़्त आ गया है कि साहिल को छोड़ कर
न तेरा क़ुर्ब न बादा है क्या किया जाए