यूँ तो पहले भी हुए उस से कई बार जुदा
लेकिन अब के नज़र आते हैं कुछ आसार जुदा
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सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
फिर उसी रहगुज़ार पर शायद
तू इतनी दिल-ज़दा तो न थी ऐ शब-ए-फ़िराक़
किसी बेवफ़ा की ख़ातिर ये जुनूँ 'फ़राज़' कब तक
तड़प उठूँ भी तो ज़ालिम तिरी दुहाई न दूँ
अब के तजदीद-ए-वफ़ा का नहीं इम्काँ जानाँ
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
न सह सका जब मसाफ़तों के अज़ाब सारे
तेरे बग़ैर भी तो ग़नीमत है ज़िंदगी
जब भी दिल खोल के रोए होंगे
क्यूँ न हम अहद-ए-रिफ़ाक़त को भुलाने लग जाएँ
अगरचे ज़ोर हवाओं ने डाल रक्खा है