अजब सफ़र था अजब-तर मुसाफ़िरत मेरी
ज़मीं शुरू हुई और मैं तमाम हुआ
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घर और बयाबाँ में कोई फ़र्क़ नहीं है
हमेशा दिल हवस-ए-इंतिक़ाम पर रक्खा
मगर वो दिया ही नहीं मान कर के
किया है दिल ने बेगाना जहान-ए-मुर्ग़-ओ-माही से
दिल-ए-बेताब के हमराह सफ़र में रहना
एक तअस्सुर
तिरी दुनिया में ऐ दिल हम भी इक गोशे में रहते हैं
बारिश का है ऐसा काल
यही दिल जो इक बूँद है बहर-ए-ग़म की
हमारी हम-नफ़सी को भी क्या दवाम हुआ
आँधी का रजज़
सबा देख इक दिन इधर आन कर के