आँख खुल जाती है जब रात को सोते सोते
कितनी सूनी नज़र आती है गुज़रगाह-ए-हयात
ज़ेहन ओ विज्दान में यूँ फ़ासले तन जाते हैं
शाम की बात भी लगती है बहुत दूर की बात
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ईद का दिन है फ़ज़ा में गूँजते हैं क़हक़हे
ढलान
उन का आना हश्र से कुछ कम न था
कौन कहता है कि मौत आई तो मर जाऊँगा
तिरी ज़ुल्फ़ें हैं कि सावन की घटा छाई है
उदास चाँद ने बदली की आड़ में हो कर
क़लम दिल में डुबोया जा रहा है
बूढ़े माँ बाप बिलकते हुए घर को पलटे
मिरी शिकस्त पे इक परतव-ए-जमाल तो है
उम्र भर उस ने इसी तरह लुभाया है मुझे