आँसुओं में भिगो के आँखों को
देखते हो तो ख़ाक देखोगे
आइने को ज़रा सा नम कर दो
पैरहन चाक चाक देखोगे
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किस दिल से करूँ विदाअ' तुझ को
पत्थर
रूह लबों तक आ कर सोचे
तिमतिमाते हैं सुलगते हुए रुख़्सार तिरे
आज की रात भी तन्हा ही कटी
बूढ़े माँ बाप बिलकते हुए घर को पलटे
एक नज़्म
बीसवीं सदी का इंसान
कुंज-ए-ज़िंदाँ में पड़ा सोचता हूँ
साँस लेना भी सज़ा लगता है
मिरे ख़ुदा ने किया था मुझे असीर-ए-बहिश्त
तिरी ज़ुल्फ़ें हैं कि सावन की घटा छाई है