ज़िक्र-ए-मिर्रीख़-ओ-मुशतरी के साथ
अपनी धरती की बात भी तो करो
मौत का एहतिराम बर-हक़ है
एहतिराम-ए-हयात भी तो करो
Faiz Ahmad Faiz
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कौन कहता है कि मौत आई तो मर जाऊँगा
रुख़्सार हैं या अक्स है बर्ग-ए-गुल-ए-तर का
एहसास में फूल खिल रहे हैं
'नदीम' जो भी मुलाक़ात थी अधूरी थी
उन का आना हश्र से कुछ कम न था
सावन की ये रुत और ये झूलों की क़तारें
गुलों में रंग तो था रंग में जलन तो न थी
यूँ तो पहने हुए पैराहन-ए-ख़ार आता हूँ
मैं कश्ती में अकेला तो नहीं हूँ
पाबंदी
फ़रेब खाने को पेशा बना लिया हम ने
सूरज को निकलना है सो निकलेगा दोबारा