अपनी ही आवाज़ के क़द के बराबर हो गया

अपनी ही आवाज़ के क़द के बराबर हो गया

मर्तबा इंसाँ का फिर बाला-ओ-बरतर हो गया

दिल में दर आया तो मिस्ल-ए-गुल मोअ'त्तर हो गया

मेरे शे'रों का सरापा जिस का पैकर हो गया

ढलते सूरज ने दिया है कितनी यादों को फ़रोग़

चाँद यूँ उभरा कि हर ज़र्रा उजागर हो गया

अब तो अपने जिस्म के साए से भी लगता है डर

घर से बाहर भी निकलना अब तो दूभर हो गया

गूँजता माहौल वहशी वाहिमे जंगल सफ़र

उफ़ ये काली रात जो मेरा मुक़द्दर हो गया

हाए वो इक अश्क जिस की कोई मंज़िल ही नहीं

हाए वो इक बे-ज़बाँ जो घर से बे-घर हो गया

आप से हम क्या कहें शहर-ए-निगाराँ का मिज़ाज

जो भी इस माहौल में आया वो पत्थर हो गया

क्या हुईं फ़िक्र-ओ-तसव्वुर की तिरे रानाइयाँ

हादिसा ऐसा भी क्या 'तनवीर' तुम पर हो गया

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