दिल की गिर्हें कहाँ वो खोलता है
चाहतों में भी झूट बोलता है
संग-रेज़ों को अपने हाथों से
मोतियों की तरह वो रोलता है
कैसा मीज़ान-ए-अदल है उस का
फूल काँटों के साथ तौलता है
ऐसा वो डिप्लोमैट है 'अकबर'
ज़हर अमृत के साथ घोलता है
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हवा सहला रही है उस के तन को
हू-ब-हू आप ही की मूरत है
हँसी में साग़र-ए-ज़र्रीं खनक खनक जाए
तिरा आँचल इशारे दे रहा है
कहते हैं हम उधर हैं सितारा है जिस तरफ़
ज़ोर-ओ-ज़र का ही सिलसिला है यहाँ
रह-ए-गुमाँ से अजब कारवाँ गुज़रते हैं
इक लम्हे ने जीवन-धारा रोक लिया
किसी को अपने सिवा कुछ नज़र नहीं आता
हरीफ़-ए-गर्दिश-ए-अय्याम तो बने हुए हैं
काफ़िर था मैं ख़ुदा का न मुंकिर दुआ का था