फ़नकार ब-ज़िद है कि लगाएगा नुमाइश
मैं हूँ कि हर इक ज़ख़्म छुपाने में लगा हूँ
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तिरा आँचल इशारे दे रहा है
गई गुज़री कहानी लग रही है
इक लम्हे ने जीवन-धारा रोक लिया
कोई नादीदा उँगली उठ रही है
कहा था उस ने मोहब्बत की आबरू रखना
किसी को अपने सिवा कुछ नज़र नहीं आता
हरीफ़-ए-गर्दिश-ए-अय्याम तो बने हुए हैं
हँसी में साग़र-ए-ज़र्रीं खनक खनक जाए
रह-ए-गुमाँ से अजब कारवाँ गुज़रते हैं
तमाम आलम-ए-इम्काँ मिरे गुमान में है
अभी ज़मीन को हफ़्त आसमाँ बनाना है