कोई नादीदा उँगली उठ रही है
मिरी जानिब इशारा हो रहा है
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नाम 'अकबर' तो मिरा माँ की दुआ ने रक्खा
किसी को अपने सिवा कुछ नज़र नहीं आता
काफ़िर था मैं ख़ुदा का न मुंकिर दुआ का था
दिल की गिर्हें कहाँ वो खोलता है
रात आई है बच्चों को पढ़ाने में लगा हूँ
फ़नकार ब-ज़िद है कि लगाएगा नुमाइश
रह-ए-गुमाँ से अजब कारवाँ गुज़रते हैं
मुझे लिक्खो वहाँ क्या हो रहा है
कहा था उस ने मोहब्बत की आबरू रखना
देखने को कोई तय्यार नहीं है भाई
ज़ोर-ओ-ज़र का ही सिलसिला है यहाँ