आह! मर्ग-ए-आरज़ू का माजरा अब क्या कहूँ
इक मुसलसल यास का है सामना अब क्या कहूँ
दम-ब-दम बुझती ही जाती है नशात-ए-दिल की जोत
रच गया है रूह में इक दर्द सा अब क्या कहूँ
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अब वो सीना है मज़ार-ए-आरज़ू
इस में कोई मिरा शरीक नहीं
दिल-ए-फ़सुर्दा में कुछ सोज़ ओ साज़ बाक़ी है
अब कहाँ हूँ कहाँ नहीं हूँ मैं
मैं किसी से अपने दिल की बात कह सकता न था
उजड़ी दुनिया को बसाया है ज़रा देखो तो
जीने की ब-ज़ाहिर नहीं कुछ आस हमें
हाँ कभी ख़्वाब-ए-इश्क़ देखा था
ग़म-ए-हयात कहानी है क़िस्सा-ख़्वाँ हूँ मैं
बुत लाखों मोहब्बत में तराशे ऐसे
ख़्वाहिश-ए-ऐश नहीं दर्द-ए-निहानी की क़सम
हवा थी ठंडी ठंडी चाँदनी थी और दरिया था