समुंदर सब के सब पायाब से हैं
समुंदर सब के सब पायाब से हैं
किनारों पर मगर गिर्दाब से हैं
तिरे ख़त में जो अश्कों के निशाँ थे
वही अब किर्मक-ए-शब-ताब से हैं
चहक उठता है साज़-ए-ज़िंदगानी
तिरे अल्फ़ाज़ भी मिज़राब से हैं
दिलों में कर्ब बढ़ता जा रहा है
मगर चेहरे अभी शादाब से हैं
हमारे ज़ख़्म रौशन हो रहे हैं
मसीहा इस लिए बेताब से हैं
वो जुगनू हो सितारा हो कि आँसू
अँधेरे में सभी महताब से हैं
कभी नश्तर कभी मरहम समझना
मिरे अशआ'र भी अहबाब से हैं
ख़ुशी तेरा मुक़द्दर होगी 'अख़्तर'
ये इम्काँ अब ख़याल-ओ-ख़्वाब से हैं
(773) Peoples Rate This