यक़ीन-ए-वादा नहीं ताब-ए-इंतिज़ार नहीं

यक़ीन-ए-वादा नहीं ताब-ए-इंतिज़ार नहीं

किसी तरह भी दिल-ए-ज़ार को क़रार नहीं

शबों को ख़्वाब नहीं ख़्वाब को क़रार नहीं

कि ज़ेब-ए-दोश वो गेसू-ए-मुश्क-बार नहीं

कली कली में समाई है निकहत-ए-सलमा

शमीम-ए-हूर है ये बू-ए-नौ-बहार नहीं

कहाँ कहाँ न हुए माह-रू जुदा मुझ से

कहाँ कहाँ मिरी उम्मीद का मज़ार नहीं

ग़मों की फ़स्ल हमेशा रही तर ओ ताज़ा

ये वो ख़िज़ाँ है कि शर्मिंदा-ए-बहार नहीं

बहार आई है ऐसे में तुम भी आ जाओ

कि ज़िंदगी का ब-रंग-ए-गुल ए'तिबार नहीं

किसी की ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ का साया-ए-रक़्साँ है

फ़ज़ा में बाल-फ़िशाँ अब्र-ए-नौ-बहार नहीं

सितारा-वार वो पहलू में आ गए शब को

सहर से कह दो कि महफ़िल में आज बार नहीं

गुल-ए-फ़सुर्दा भी इक तुर्फ़ा हुस्न रखता है

ख़िज़ाँ ये है तो मुझे हसरत-ए-बहार नहीं

हर एक जाम पे ये नग़्मा-ए-हज़ीं साक़ी

कि इस जवानी-ए-फ़ानी का ए'तिबार नहीं

ख़ुदा ने बख़्श दिए मेरे दिल को ग़म इतने

कि अब मैं अपने गुनाहों पे शर्मसार नहीं

चमन की चाँदनी रातें हैं किस क़दर वीराँ

कि इस बहार में वो माह-ए-नौ-बहार नहीं

शरीक-ए-सोज़ हैं परवाने शम्अ के 'अख़्तर'

हमारे दिल का मगर कोई ग़म-गुसार नहीं

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