इक सदा की सूरत हम इस हवा में ज़िंदा हैं
हम जो रौशनी होते हम पे भी झपटती रात
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देखने में लगती थी भीगती सिमटती रात
ज़रा हटे तो वो मेहवर से टूट कर ही रहे
फ़रेब-ए-माह-ओ-अंजुम से निकल जाएँ तो अच्छा है
पेश हर अहद को इक तेग़ का इम्काँ क्यूँ है
कभी सर पे चढ़े कभी सर से गुज़रे कभी पाँव आन गिरे दरिया
ऐ शाएर! तेरा दर्द बड़ा ऐ शाएर! तेरी सोच बड़ी
अँधेरी बस्तियाँ रौशन मनारे डूब जाएँगे
उसी पेड़ के नीचे दफ़्न भी होना होगा
अपना आप नहीं है सब कुछ अपने आप से निकलो
ग़ुबार-ए-नूर है या कहकशाँ है या कुछ और
पानी में भी प्यास का इतना ज़हर मिला है