इसी लिए तो है ज़िंदाँ को जुस्तुजू मेरी
कि मुफ़लिसी को सिखाई है सर-कशी मैं ने
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एक बात
फाँस की तरह हर इक साँस खटकती है मुझे
देखो तो तीरा-ओ-तारीक फ़ज़ा का आलम
फ़रोग़-ए-दीदा-ओ-दिल लाला-ए-सहर की तरह
मेरी दुनिया में मोहब्बत नहीं कहते हैं इसे
जज़्बा-ए-शौक़ की तकमील नहीं हो सकती
कहीं दरिया कहीं वादी कहीं कोहसार बनी
अभी और तेज़ कर ले सर-ए-ख़ंजर-ए-अदा को
तुम्हारा शहर
साल-हा-साल फ़ज़ाओं में शरर-बार रही
सर्द हैं दिल आतिश-ए-रू-ए-निगाराँ चाहिए
ये मय-कदा है यहाँ हैं गुनाह जाम-ब-दस्त