सारे आलम में ये उड़ता हुआ गुल-रंग निशाँ
सच बता सुर्ख़ी-ए-रुख़्सार-ए-सहर है कि नहीं
ये तड़पता हुआ शो'ला ये चमकता तारा
जन्नत-ए-जलवा-ए-फ़िर्दोस-ए-नज़र है कि नहीं
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आँधियाँ चलती रहें अफ़्लाक थर्राते रहे
ख़ूगर-ए-रू-ए-ख़ुश-जमाल हैं हम
चाँद को रुख़्सत कर दो
दामन झटक के वादी-ए-ग़म से गुज़र गया
किस क़दर नूर-ए-सहर देख के शरमाते हैं
मक़तल-ए-शौक़ के आदाब निराले हैं बहुत
इसी लिए तो है ज़िंदाँ को जुस्तुजू मेरी
निकहत-ओ-रंग का तूफ़ान उमँड आया है
परतव से जिस के आलम-ए-इम्काँ बहार है
तू नहीं है न सही तेरी मोहब्बत का ख़याल
कितनी आशाओं की लाशें सूखें दिल के आँगन में
शबों की ज़ुल्फ़ की रू-ए-सहर की ख़ैर मनाओ