ज़ुल्फ़-ए-शब-रंग की घनघोर घटा से छन कर
पड़ रही है किसी चेहरे पे तबस्सुम की फुवार
जैसे बरसात की रातों में चमकते जुगनू
या शब-ए-माह के ऐवान में बजता है सितार
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ज़ुल्म की कुछ मीआ'द नहीं है
एक ख़्वाब और
उलझे काँटों से कि खेले गुल-ए-तर से पहले
लहू पुकारता है
फूटने वाली है मज़दूर के माथे से किरन
लग़्ज़िश-ए-गाम लिए लग़्ज़िश-ए-मस्ताना लिए
अपने उड़ते हुए आँचल को न रह रह के सँभाल
तबस्सुम-ए-लब-ए-साक़ी चमन खिला ही गया
इसी लिए तो है ज़िंदाँ को जुस्तुजू मेरी
हम जो महफ़िल में तिरी सीना-फ़िगार आते हैं
कमी कमी सी थी कुछ रंग-ओ-बू-ए-गुलशन में
फ़स्ल-ए-गुल फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ जो भी हो ख़ुश-दिल रहिए