सवार-ए-नाक़ा-ओ-महमिल नहीं मैं
निशान-ए-जादा हूँ मंज़िल नहीं मैं
मिरी तक़दीर है ख़ाशाक-सोज़ी
फ़क़त बिजली हूँ मैं हासिल नहीं मैं
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कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
चमन में रख़्त-ए-गुल शबनम से तर है
तू क़ादिर ओ आदिल है मगर तेरे जहाँ में
उरूज-ए-आदम-ए-ख़ाकी से अंजुम सहमे जाते हैं
मैं जो सर-ब-सज्दा हुआ कभी तो ज़मीं से आने लगी सदा
हुई न आम जहाँ में कभी हुकूमत-ए-इश्क़
खो न जा इस सहर ओ शाम में ऐ साहिब-ए-होश
माँ का ख़्वाब
दिल सोज़ से ख़ाली है निगह पाक नहीं है
जिन्हें मैं ढूँढता था आसमानों में ज़मीनों में
कोई देखे तो मेरी नय-नवाज़ी
कभी आवारा ओ बे-ख़ानुमाँ इश्क़