यही आदम है सुल्ताँ बहर-ओ-बर का
कहूँ क्या माजरा इस बे-बसर का
न ख़ुद-बीं ने ख़ुदा-बीं ने जहाँ-बीं
यही शहकार है तेरे हुनर का?
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इस राज़ को इक मर्द-ए-फ़रंगी ने किया फ़ाश
उमीद-ए-हूर ने सब कुछ सिखा रक्खा है वाइज़ को
दिल से जो बात निकलती है असर रखती है
मेरी नवा-ए-शौक़ से शोर हरीम-ए-ज़ात में
अजब नहीं कि ख़ुदा तक तिरी रसाई हो
ये मेहर है बे-मेहरी-ए-सय्याद का पर्दा
तिरे आज़ाद बंदों की न ये दुनिया न वो दुनिया
मुझे आह-ओ-फ़ुग़ान-ए-नीम-शब का फिर पयाम आया
तुझे याद क्या नहीं है मिरे दिल का वो ज़माना
न आते हमें इस में तकरार क्या थी
निगह उलझी हुई रंग-ओ-बू में
अमल से ज़िंदगी बनती है जन्नत भी जहन्नम भी