ये महर है बे-मेहरी-ए-सय्याद का पर्दा
आई न मिरे काम मिरी ताज़ा-सफ़ीरी
रखने लगा मुरझाए हुए फूल क़फ़स में
शायद कि असीरों को गवारा हो असीरी
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मन की दौलत हाथ आती है तो फिर जाती नहीं
करम तेरा कि बे-जौहर नहीं मैं
वो हर्फ़-ए-राज़ कि मुझ को सिखा गया है जुनूँ
फ़िरदौस में 'रूमी' से ये कहता था 'सनाई'
आईन-ए-जवाँ-मर्दां हक़-गोई ओ बे-बाकी
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
फ़ितरत को ख़िरद के रू-ब-रू कर
मरक़द का शबिस्ताँ भी उसे रास न आया
बाग़-ए-बहिश्त से मुझे हुक्म-ए-सफ़र दिया था क्यूँ
कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
जिन्हें मैं ढूँढता था आसमानों में ज़मीनों में
मिलेगा मंज़िल-ए-मक़्सूद का उसी को सुराग़