मिरे जुनूँ ने ज़माने को ख़ूब पहचाना
वो पैरहन मुझे बख़्शा कि पारा पारा नहीं
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उक़ाबी रूह जब बेदार होती है जवानों में
फिर चराग़-ए-लाला से रौशन हुए कोह ओ दमन
जब इश्क़ सिखाता है आदाब-ए-ख़ुद-आगाही
तमन्ना दर्द-ए-दिल की हो तो कर ख़िदमत फ़क़ीरों की
मरक़द का शबिस्ताँ भी उसे रास न आया
बे-ख़तर कूद पड़ा आतिश-ए-नमरूद में इश्क़
कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
पास था नाकामी-ए-सय्याद का ऐ हम-सफ़ीर
ये जन्नत मुबारक रहे ज़ाहिदों को
ख़िरद ने मुझ को अता की नज़र हकीमाना
हर इक ज़र्रे में है शायद मकीं दिल
मुझे रोकेगा तू ऐ नाख़ुदा क्या ग़र्क़ होने से