सौदा-गरी नहीं ये इबादत ख़ुदा की है
ऐ बे-ख़बर जज़ा की तमन्ना भी छोड़ दे
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महीने वस्ल के घड़ियों की सूरत उड़ते जाते हैं
सौ सौ उमीदें बंधती है इक इक निगाह पर
मता-ए-बे-बहा है दर्द-ओ-सोज़-ए-आरज़ूमंदी
कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
अच्छा है दिल के साथ रहे पासबान-ए-अक़्ल
गेसू-ए-ताबदार को और भी ताबदार कर
ज़लाम-ए-बहर में खो कर सँभल जा
मस्जिद-ए-क़ुर्तुबा
वो हर्फ़-ए-राज़ कि मुझ को सिखा गया है जुनूँ
मिरी निगाह में वो रिंद ही नहीं साक़ी
परिंदे की फ़रियाद
नहीं है ना-उमीद 'इक़बाल' अपनी किश्त-ए-वीराँ से