तिरा तन रूह से ना-आश्ना है
अजब क्या आह तेरी ना-रसा है
तन-ए-बे-रूह से बे-ज़ार है हक़
ख़ुदा-ए-ज़िंदा ज़िंदों का ख़ुदा है
Parveen Shakir
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Gulzar
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जब इश्क़ सिखाता है आदाब-ए-ख़ुद-आगाही
ख़ुदाई एहतिमाम-ए-ख़ुश्क-ओ-तर है
उमीद-ए-हूर ने सब कुछ सिखा रक्खा है वाइज़ को
गुज़र जा अक़्ल से आगे कि ये नूर
क्या इश्क़ एक ज़िंदगी-ए-मुस्तआ'र का
कल अपने मुरीदों से कहा पीर-ए-मुग़ाँ ने
ख़ुदी की ख़ल्वतों में गुम रहा मैं
मुरीद-ए-सादा तो रो रो के हो गया ताइब
यूँ तो सय्यद भी हो मिर्ज़ा भी हो अफ़्ग़ान भी हो
ये कौन ग़ज़ल-ख़्वाँ है पुर-सोज़ ओ नशात-अंगेज़
मिटा दिया मिरे साक़ी ने आलम-ए-मन-ओ-तू
अनोखी वज़्अ' है सारे ज़माने से निराले हैं