धावा बोलेगा बहुत जल्द ख़िज़ाँ का लश्कर
शाख़ को नेज़ा करूँ फूल को तलवार करूँ
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सरापा तिरा क्या क़यामत नहीं है?
बाज़ ख़त पुर-असर भी होते हैं
इक ज़रा सी चाह में जिस रोज़ बिक जाता हूँ मैं
नई नस्लों के हाथों में भी ताबिंदा रहेगा
अंजुमन में जो मिरी इतनी ज़िया है साहब
सुन रहा हूँ कि वो आएँगे हँसाने मुझ को
यहाँ हो रहीं हैं वहाँ हो रहीं हैं
गुलों की गर इनायत हो गई तो
हुस्न की दिलकशी पे नाज़ न कर
एक उम्र से तुझे मैं बे-उज़्र पी रहा हूँ
जो भी सूखे गुल किताबों में मिले अच्छे लगे