है जुस्तुजू कि ख़ूब से है ख़ूब-तर कहाँ
अब ठहरती है देखिए जा कर नज़र कहाँ
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जानवर आदमी फ़रिश्ता ख़ुदा
होती नहीं क़ुबूल दुआ तर्क-ए-इश्क़ की
रोना है ये कि आप भी हँसते थे वर्ना याँ
जब मायूसी दिलों पे छा जाती है
वक़्त की मुसाइदत
आलिम ओ जाहिल में क्या फ़र्क़ है
दिल को दर्द-आश्ना किया तू ने
कुछ हँसी खेल सँभलना ग़म-ए-हिज्राँ में नहीं
क़लक़ और दिल में सिवा हो गया
इश्क़ सुनते थे जिसे हम वो यही है शायद
हक़ वफ़ा के जो हम जताने लगे
सुकूत-ए-दरवेश-ए-जाहिल