इक जहल के सैलाब में जो बहते हैं
इक आलम-ए-मौहूम में जो रहते हैं
कम-ज़र्फ़-ओ-कम-अंदेश हैं कज-फ़हम हैं जो
बे-वज्ह वो उर्दू को बुरा कहते हैं
Jaun Eliya
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Rahat Indori
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इक वो हैं कि इंकार किए जाते हैं
बे-कैफ़ हैं दिन-रात कहूँ तो किस से
बेकस की कोई किस लिए इमदाद करे
इस दहर में अब किस पे भरोसा कीजे
क्या तुम ने मिरा हाल-ए-ज़बूँ देखा है
क्यूँ उन को सताने में मज़ा आता है
होंटों से लगाता है कोई जाम कहाँ
अफ़्सोस कि जिस दिन से हम आज़ाद हुए
इल्ज़ाम लगाया है तो साबित भी करो
मत कहियो ज़बाँ है ये मुसलामानों की