इस दहर में अब किस पे भरोसा कीजे
किस शख़्स का मुश्किल में सहारा कीजे
है किस को ग़रज़ काम किसी के आए
किस आस पर आवाज़ किसी को दीजे
Ahmad Faraz
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बे-कैफ़ हैं दिन-रात कहूँ तो किस से
इक जहल के सैलाब में जो बहते हैं
इल्ज़ाम लगाया है तो साबित भी करो
क्या तुम ने मिरा हाल-ए-ज़बूँ देखा है
होंटों से लगाता है कोई जाम कहाँ
क्यूँ उन को सताने में मज़ा आता है
बेकस की कोई किस लिए इमदाद करे
इक वो हैं कि इंकार किए जाते हैं
अफ़्सोस कि जिस दिन से हम आज़ाद हुए
मत कहियो ज़बाँ है ये मुसलामानों की