क्या तुम ने मिरा हाल-ए-ज़बूँ देखा है
हर हसरत-ओ-उम्मीद का ख़ूँ देखा है
उठ बैठा हूँ सौ बार मैं सोते सोते
ये वहशत ओ अंदाज़-ए-जुनूँ देखा है
Parveen Shakir
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अफ़्सोस कि जिस दिन से हम आज़ाद हुए
क्यूँ उन को सताने में मज़ा आता है
इस दहर में अब किस पे भरोसा कीजे
बे-कैफ़ हैं दिन-रात कहूँ तो किस से
मत कहियो ज़बाँ है ये मुसलामानों की
इक जहल के सैलाब में जो बहते हैं
इक वो हैं कि इंकार किए जाते हैं
बेकस की कोई किस लिए इमदाद करे
होंटों से लगाता है कोई जाम कहाँ
इल्ज़ाम लगाया है तो साबित भी करो