देख ले बुलबुल ओ परवाना की बेताबी को
हिज्र अच्छा न हसीनों का विसाल अच्छा है
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कहा जो मैं ने कि यूसुफ़ को ये हिजाब न था
जब से बाँधा है तसव्वुर उस रुख़-ए-पुर-नूर का
हटाओ आइना उम्मीद-वार हम भी हैं
हुए नामवर बे-निशाँ कैसे कैसे
मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से
वस्ल में ख़ाली हुई ग़ैर से महफ़िल तो क्या
सादा समझो न इन्हें रहने दो दीवाँ में 'अमीर'
सब हसीं हैं ज़ाहिदों को ना-पसंद
शैख़ कहता है बरहमन को बरहमन उस को सख़्त
बाक़ी न दिल में कोई भी या रब हवस रहे
शब-ए-फ़ुर्क़त का जागा हूँ फ़रिश्तो अब तो सोने दो
है जवानी ख़ुद जवानी का सिंगार