ज़मीं के जिस्म पे यूँ यूरिश-ए-क़ज़ा कब तक
ज़मीं के जिस्म पे यूँ यूरिश-ए-क़ज़ा कब तक
फ़लक-नशीनों यूँही ग़म का सिलसिला कब तक
अभी से उठने लगे हैं सवाल के लश्कर
तो फिर ऐ रक़्स-ए-फ़ुसूँ शोर-ए-बे-सदा कब तक
सितारे अपनी ज़िया का लिबास दे न सके
उरूस-ए-शब के बदन पर फटी रिदा कब तक
तमाम उम्र लहू का ख़िराज बख़्शेंगे
रहेगा तौक़-ओ-सलासिल से वास्ता कब तक
हवाएँ शाख़-ए-फ़लक से सदा लगाती हैं
ग़ुबार-ए-राह में रह पाएगी अना कब तक
सुकूत-ए-शाम से घबरा न ऐ शफ़क़-ताबी
रुका रहेगा भला शब का क़ाफ़िला कब तक
लिखो भी लम्हा-ए-बे-तन पे ज़िंदगी 'आमिर'
लिखोगे अपने मुक़द्दर का मर्सिया कब तक
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