दुनिया के हर एक ज़र्रे से घबराता हूँ
ग़म सामने आता है जिधर जाता हूँ
रहते हुए इस जहाँ में मुद्दत गुज़री
फिर भी अपने को अजनबी पाता हूँ
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मर मर के लहद में मैं ने जा पाई है
हर क़तरे में बहर-ए-मा'रफ़त मुज़्मर है
हर महफ़िल से ब-हाल-ए-ख़स्ता निकला
ये संग-ए-निशाँ है मंज़िल-ए-वहदत का
सरमाया-ए-इल्म-ओ-फ़ज़्ल खोया मैं ने
कम-ज़र्फ़ अगर दौलत-ओ-ज़र पाता है
असलियत अगर नहीं तो धोका ही सही
है उन की यही ख़ुशी कि हम ग़म में रहें
इस जिस्म की केचुली में इक नाग भी है
जो मा'नी-ए-मज़मूँ है वही उनवाँ है
गरमी में ग़म-ए-लिबादा ना-ज़ेबा है