हर ज़र्रे पे फ़ज़्ल-ए-किबरिया होता है
इक चश्म-ए-ज़दन में क्या से क्या होता है
असनाम दबी ज़बाँ से ये कहते हैं
वो चाहे तो पत्थर भी ख़ुदा होता है
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असलियत अगर नहीं तो धोका ही सही
दुनिया के हर एक ज़र्रे से घबराता हूँ
जो मा'नी-ए-मज़मूँ है वही उनवाँ है
सरमाया-ए-इल्म-ओ-फ़ज़्ल खोया मैं ने
सब कहते हैं मरकज़-ए-बदी है दुनिया
हर महफ़िल से ब-हाल-ए-ख़स्ता निकला
ये संग-ए-निशाँ है मंज़िल-ए-वहदत का
मर मर के लहद में मैं ने जा पाई है
कम-ज़र्फ़ अगर दौलत-ओ-ज़र पाता है
है उन की यही ख़ुशी कि हम ग़म में रहें
जो कुछ मुसीबतें हैं तुझ पर कम हैं