इस जिस्म की केचुली में इक नाग भी है
आवाज़-ए-शिकस्त-ए-दिल में इक राग भी है
बेकार नहीं बना है इक तिनका भी
ख़ामोश दिया सिलाई में आग भी है
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हर ज़र्रे पे फ़ज़्ल-ए-किबरिया होता है
कम-ज़र्फ़ अगर दौलत-ओ-ज़र पाता है
दुनिया के हर एक ज़र्रे से घबराता हूँ
असलियत अगर नहीं तो धोका ही सही
सब कहते हैं मरकज़-ए-बदी है दुनिया
हर क़तरे में बहर-ए-मा'रफ़त मुज़्मर है
ये संग-ए-निशाँ है मंज़िल-ए-वहदत का
जो मा'नी-ए-मज़मूँ है वही उनवाँ है
गरमी में ग़म-ए-लिबादा ना-ज़ेबा है
है उन की यही ख़ुशी कि हम ग़म में रहें
जो कुछ मुसीबतें हैं तुझ पर कम हैं