जो मा'नी-ए-मज़मूँ है वही उनवाँ है
वाजिब ही में एक सूरत-ए-इम्काँ है
महशर हो कि क़ब्र ज़िंदगी हो कि हो मौत
जो याँ है वहाँ है जो वहाँ है याँ है
Gulzar
Ahmad Faraz
Parveen Shakir
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हर महफ़िल से ब-हाल-ए-ख़स्ता निकला
कुछ वक़्त से एक बीज शजर होता है
जो कुछ मुसीबतें हैं तुझ पर कम हैं
सब कहते हैं मरकज़-ए-बदी है दुनिया
ये संग-ए-निशाँ है मंज़िल-ए-वहदत का
सरमाया-ए-इल्म-ओ-फ़ज़्ल खोया मैं ने
इस जिस्म की केचुली में इक नाग भी है
मर मर के लहद में मैं ने जा पाई है
दुनिया के हर एक ज़र्रे से घबराता हूँ
गरमी में ग़म-ए-लिबादा ना-ज़ेबा है
हर क़तरे में बहर-ए-मा'रफ़त मुज़्मर है
है उन की यही ख़ुशी कि हम ग़म में रहें