मर मर के लहद में मैं ने जा पाई है
याँ तक मुझे तेरी ही कशिश लाई है
आ ऐ मिरे मुँह छुपाने वाले आ जा
ख़ल्वत है शब-ए-तार है तन्हाई है
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जो मा'नी-ए-मज़मूँ है वही उनवाँ है
इस जिस्म की केचुली में इक नाग भी है
हर महफ़िल से ब-हाल-ए-ख़स्ता निकला
है उन की यही ख़ुशी कि हम ग़म में रहें
दुनिया के हर एक ज़र्रे से घबराता हूँ
असलियत अगर नहीं तो धोका ही सही
कम-ज़र्फ़ अगर दौलत-ओ-ज़र पाता है
हर क़तरे में बहर-ए-मा'रफ़त मुज़्मर है
गरमी में ग़म-ए-लिबादा ना-ज़ेबा है
सरमाया-ए-इल्म-ओ-फ़ज़्ल खोया मैं ने
ये संग-ए-निशाँ है मंज़िल-ए-वहदत का