अक़्ल के भटके होऊँ को राह दिखलाते हुए
हम ने काटी ज़िंदगी दीवाना कहलाते हुए
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अब बन के फ़लक-ज़ाद दिखाते हैं हमें आँख
रह-रवी है न रहनुमाई है
ये दिल आवेज़ी-ए-हयात न हो
हुस्न के जल्वे नहीं मुहताज-ए-चश्म-ए-आरज़ू
बशर को मशअ'ल-ए-ईमाँ से आगही न मिली
न जाने कितनी शमएँ गुल हुईं कितने बुझे तारे
सर-ए-महशर यही पूछूँगा ख़ुदा से पहले
वो दुनिया थी जहाँ तुम रोक लेते थे ज़बाँ मेरी
अश्क-ए-ग़म-ए-उल्फ़त में इक राज़-ए-निहानी है
ख़ून-ए-जिगर के क़तरे और अश्क बन के टपकें
मोहिब्बान-ए-वतन का नारा
जिस के ख़याल में हूँ गुम उस को भी कुछ ख़याल है