मैं जिस चराग़ से बैठा था लौ लगाए हुए
पता चला वो अंधेरे में रख रहा था मुझे
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ज़ुहूर-ए-कश्फ़-ओ-करामात में पड़ा हुआ हूँ
मुहाजिर परिंदों का स्वागत
रौशनी भी नहीं हवा भी नहीं
हिसाब-ए-जाँ!!
जस्त भरता हुआ फ़र्दा के दहाने की तरफ़
इस से आगे तो बस ला-मकाँ रह गया
ज़मीन हाँपने लगती है इक जगह रुक कर
चल तो सकता था मैं भी पानी पर
हम बे-वतन ख़्वाबों के जोलाहे हैं
ये भी आग़ाज़-ए-मोहब्बत में बहुत है मुझ को
आईना साफ़ था धुँदला हुआ रहता था मैं
कहो हवा से कि इतनी चराग़-पा न फिरे